yodhya Ram Mandir: ‘रामलला रहेंगे विराजमान’, मील का पत्थर बना था हाईकोर्ट का फैसल।
सरयू से जानिये अयोध्या की मुक्ति के संघर्ष की दास्तां। जब हाईकोर्ट से खुशखबरी आई कि रामलला विराजमान रहेंगे। 30 सितंबर 2010 की शाम को पता चला कि हाईकोर्ट ने रामलला को विराजमान रखने का आदेश दिया है। हाईकोर्ट का यह फैसला मील का पत्थर बना।
वर्ष 1992 में 6 दिसंबर को ढांचा गिरने से पहले रामलला का विग्रह वहां से हटा दिया गया था। ढांचा ढहाने के बाद परिसर पर दो दिन कारसेवकों का कब्जा रहा। कारसेवकों ने चबूतरा और अस्थायी मंदिर बनाकर रामलला को विराजित कर पूजा अर्चना की।
देशभर के कई हिस्सों में सांप्रदायिक संघर्ष हुए। कई अफसरों पर गाज गिरी। कल्याण सिंह सरकार बर्खास्त होने से प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लग गया। केंद्र की नरसिंह राव सरकार ने श्रीराम जन्मभूमि न्यास को कल्याण सिंह सरकार की ओर से 1991 में दी गई भूमि सहित पूरे परिसर की 67 एकड़ भूमि अधिगृहीत कर ली। उसे लोहे के हजारों पाइपों से घिरवा दिया।
राष्ट्रपति शासन लगने के बावजूद केंद्रीय सुरक्षा बल ढांचा ढहने के दो दिन बाद तड़के 3.35 बजे फैजाबाद से अयोध्या स्थित परिसर में पहुंच पाए। कारसेवकों को समझा-बुझाकर परिसर को कब्जे में लिया। शहर में कर्फ्यू था। वकील हरिशंकर जैन की याचिका पर 8 दिसंबर को न्यायालय ने रामलला के पूजन-दर्शन शुरू करने का निर्देश दिया।
पुलिस ने ढांचा ध्वंस के लिए लालकृष्ण आडवाणी, डॉ. मुरली मनोहर जोशी, कल्याण सिंह, अशोक सिंहल, उमा भारती और विनय कटियार सहित कई पर एफआईआर की। इनकी गिरफ्तारी हुई। केंद्र ने ढांचा ध्वंस की जांच सीबीआई को सौंप दिया।
30 सितंबर, 2020 को सभी 32 आरोपी बरी हो गए। राव सरकार ने ध्वंस मामले में सेवानिवृत्त न्यायाधीश मनमोहन सिंह लिब्रहान की अध्यक्षता में जांच आयोग भी बैठाया, जिसने तीन महीने की जगह लगभग 8 करोड़ रुपये खर्च कर 17 साल में रिपोर्ट तैयार की। पर विसंगतियों के कारण यह रिपोर्ट बेनतीजा रही। उधर, मंदिर बनाम मस्जिद पर सियासत अपना काम करती रही। प्रधानमंत्री राव ने मस्जिद के पुनर्निर्माण की घोषणा की। समझौता वार्ताओं के दौर चले। पर, नतीजा कोई नहीं निकला।
ढांचा ढहने के बाद विहिप और श्रीराम जन्मभूमि न्यास ने मंदिर निर्माण के लिए पत्थरों की तराशी शुरू करा दी। शौर्य दिवस बनाम काला दिवस से दोनों पक्षों ने माहौल गरम रखा। बाद में दोनों पक्षों ने कानून बनाकर संबंधित मंदिर निर्माण का रास्ता साफ करने की मांगें की। तमाम फॉर्मूले बने, बिगड़े, लेकिन बात नहीं बनी।
केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में क्रमशः 13 दिन और 13 महीने के बाद जब 1999 में सरकार बनी, तो संतों ने भाजपा के मंदिर निर्माण में सहयोग की बात याद दिलाई। पर सरकार चुप रही। इससे नाराज महंत रामचंद्र दास परमहंस और अशोक सिंहल ने फरवरी से कार्यक्रम तथा मार्च में कारसेवा की घोषणा की।
मील का पत्थर बना हाईकोर्ट का फैसला
30 सितंबर, 2010। प्रदेश में मायावती सरकार। शाम को पता चला कि न्यायाधीश न्यायमूर्ति एसयू खान, न्यायमूर्ति सुधीर अग्रवाल और न्यायमूर्ति धर्मवीर शर्मा की पीठ ने रामलला को विराजमान रखने का आदेश दिया है। दो न्यायाधीशों ने विवादित 2.77 एकड़ भूमि को मस्जिद पक्ष, निर्मोही अखाड़ा और रामलला विराजमान के बीच बराबर बांटने को कहा है तो एक न्यायमूर्ति शर्मा ने पूरी भूमि मंदिर की मानी है।
मुझे तकनीकी पक्ष से क्या लेना देना था। मेरे लिए तो यही बहुत था कि मंदिर बनने का रास्ता साफ हो गया था। कारण, फैसले में जमीन के दो हिस्से मंदिर के ही थे। फैसले की पृष्ठभूमि…उच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश देवकीनंदन अग्रवाल ने 1989 में रामलला विराजमान और राम जन्मस्थान को वादी बनाते हुए उनके सखा के रूप में पांचवां मुकदमा दायर कर फैजाबाद की अदालत में पड़े मुकदमों को इससे जोड़कर सुनवाई की मांग की।
तब उच्च न्यायालय ने फैजाबाद जिला अदालत के सभी चार मुकदमों को अपने यहां ट्रांसफर कर एकसाथ सुनवाई शुरू की। इसी में उच्च न्यायालय के निर्देश पर भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण एएसआई ने संबंधित स्थल की खोदाई की। जिसकी रिपोर्ट भी फैसले का आधार बनी। हालांकि मामला ऊपर की अदालत में चला गया।
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